जब किसी राष्ट्र की बहुसंख्यक जनता किसी मत को लेकर एक मंतव्य गढ़ लेती है तब उस राष्ट्र में किसी चर्चा को गर्त में से निकालकर बाहर लाना अत्यंत ही कठिन हो जाता है । JNU के साथ फ़िलहाल इसी तरह की घटनायें घटित हो रही हैं । राष्ट्र के कई लोगों ने यह मंतव्य स्थापित कर लिया है कि JNU में होने वाली सभी घटनायें राष्ट्र विरोधी एवं नुक़सानदायक ही होती हैं, तब ऐसे मंतव्यों के बीच अपनी बात रख पाना और उस पर बिना घबराये अडिग रहना, JNU से सीखा जा सकता है। अब JNU के बारे में लोगों ने यह मंतव्य अपने-आप बनाया है या सत्ताधारियों के किसी प्रपंच का परिणाम है, यह एक बहस का विषय हो सकता है। अक्सर विवादों में रहनेवाली या यूँ कहूँ कि सच और झूठ के बीच का फ़ासला दिखाने में लगी रहने वाली JNU अपने-आप में एक मिसाल है कि जब राष्ट्र की जनता को झूठ और फ़रेब में उलझाकर एक पंक्ति में खड़ा कर दिया गया हो तब भी स्वयं के मनोबल एवं अडिग रहने के तप से उम्मीद की किरण जलायी रखी जा सकती है ।
अलग-अलग न्यूज़ चैनलों की मानें तो किसी के लिए ₹ 300/मासिक होस्टल फ़ीस बहुत ज़्यादा नहीं है एवं किसी के लिए फ़ीस बढ़ना उन सभी विध्यार्थियों पर अतिरिक्त बोझ बढ़ाना है जिनकी औसत मासिक पारिवारिक आय ₹ 12000 से कम है । बात यहाँ से भी आगे यह है कि फ़ीस वृद्धि के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन मात्र JNU में ही हैं या देश के अन्य विश्वविद्यालयों में भी यह कारनामा किया गया है ।NDTV न्यूज़ चैनल की मानें तो BHU IIT में भी फ़ीस ₹50,000 से बढ़ाकर ₹2,00,000 कर दी गई एवं उत्तराखंड के एक मेडिकल कॉलेज में भी फ़ीस में वृद्धि की गयी और वहाँ भी विरोध प्रदर्शनों के लगभग 40 दिनों लम्बे मंजर देखे गए ।
बड़ी दुःखद बात है कि एक लोकतांत्रिक समाजवादी राष्ट्र में शिक्षा के क्षेत्र में जब ज़्यादा से ज़्यादा योगदान सरकारी क्षेत्र से होना चाहिए तब ऐसे फ़ीस बढ़ाकर गरीब जनता को पहले से ही शिक्षा की पंक्ति से अलग कर दिए जाने का षड्यन्त्र रचा जा रहा है । जो प्रत्यक्ष करदाता शिक्षा पर होने वाले खर्च को बर्बादी बता रहे हैं, वो इस बात को नज़रंदाज़ कर रहे हैं कि सत्ताधारी पार्टी को मिले लगभग ₹700 करोड़ के चंदे में जिन कम्पनियों का दान अधिक है, उनसे मिलने वाले करों और उन्हें प्रदत्त की जाने वाली संविदाओं में कितना सम्बंध हैं ।बात तो ये भी सही है कि जो व्यक्ति प्रत्यक्ष कर देने में सक्षम हैं, उसके लिए ₹300/मासिक कोई बड़ा मसला नहीं हैं और जब उन्हें यह अहसास होता है कि उनके द्वारा दिया जाने वाला कर गरीब विध्यार्थियों की शिक्षा पर खर्च हो रहा है तब यह उन्हें बर्बादी नज़र आती है क्योंकि वे स्वयं तो गरीब हैं ही नहीं ।
जब देश के अन्य विश्वविध्यालयों में भी विरोध प्रदर्शनों की एक शृंखला क़ायम हैं तब JNU को ही क्यों इतना प्रकाश में लाया जा रहा है? क्या ऐसा जनता के उसी मंतव्य को और मज़बूत करने के लिए किया जा रहा है, जिसमें उन्होंने JNU को विरोध की प्रतिमूर्ति समझ लिया है और यदि ऐसा है भी तो भी हमें JNU के प्रदर्शनकारी छात्र - छात्राओं का धन्यवाद करना चाहिए कि उन्होंने स्वयं को विरोध करनेके सक्षम बनाया क्योंकि जहाँ विरोध होता है, वहीं पर सच सामने निकलकर आता है । चाहे वह सच जिसके ख़िलाफ़ विरोध किया जारहा है, उससे सम्बंधित हों या जो विरोध कर रहे हैं, उनसे सम्बंधित ।जिस जगह पर प्रत्येक कृत्य में मौन सहमति हों, वहाँ सत्य और झूठ सब एक समान हो जाता है और यह ग़ुलामी का एक नमूना हो जाता हैं, जहाँ जो मालिक ने कह दिया वही सत्य है और उसका विरोध नहीं किया जा सकता । JNU ने अपने कृत्यों से कम से कम यह तो साबित कर दिया है कि वे ग़ुलाम बनकर नहीं रह सकते, चाहे उन्हें अपने अधिकारों के लिए हर बार सड़कों पर ही क्यों न आना पड़े।
खबरों के अनुसार विरोध प्रदर्शन कर रहे शिक्षार्थियों ने JNU परिसर में लगी स्वामी विवेकानंद कि मूर्ति के आस-पास अभद्र भाषा मेंशब्दों को लिखा। यदि यह घटना सही है और विरोध प्रदर्शनकारियों के द्वारा ही इसे अंजाम दिया गया है तब इसे किसी भी प्रकार से समर्थन नहीं दिया जा सकता । मैं ऐसा इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि मेरी स्वामी विवेकानंद में कोई आस्था है बल्कि इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जब शिक्षा के स्वरूप को बिगड़ने से बचाने के लिए ही हमने आंदोलन की शुरुआत की है तब हम स्वयं ही शिक्षा के विकृत स्वरूपको कैसे प्रदर्शित कर सकते हैं और फिर हमें महात्मा गांधी के ‘साधन-साध्य की पवित्रता’ के सिद्धांत को भी नहीं भूलना चाहिए ।हालाँकि मैं समझ सकता हूँ कि इस विचार पर वामपंथी एवं दक्षिणपंथी समुदायों के मत भिन्न-भिन्न हो सकते हैं किन्तु फिर भी मैं यहविश्वास लेकर चल रहा हूँ कि JNU में हो रहे विरोध प्रदर्शनों में मात्र वामपंथी ही नहीं अपितु दक्षिणपंथी छात्र-छात्राएँ भी शामिल हुए होंगे क्योंकि इस बात को समझने में अधिक मानसिक कसरत की आवश्यकता नहीं है कि ग़रीबी वामपंथ या दक्षिणपंथ को देखकर प्रहार नहीं करती अपितु ग़रीबी स्वयं मनुष्यता पर ही एक प्रहार है ।
वर्तमान सरकार जिस प्रकार से प्रत्येक क्षेत्र में निजीकरण एवं मूल्य वृद्धि को थोप रही है, उसे इन प्रत्यक्ष कर दाताओं के लिए मंदिर की आड़ में तो छिपाया जा सकता है किन्तु इस देश का गरीब व्यक्ति इन प्रपंचों को अपनी थाली में रखी रोटी के आकार में रोज़ देखता है ।जो लोग JNU में होने वाले विरोध प्रदर्शनों को राष्ट्र्विरोधी बताने में लगे रहते हैं, उन्हें यह बात समझने की आवश्यकता है कि शिक्षा का अर्थ मात्र मौन रहकर प्रत्येक वहनीय और अवहनीय आदेशों को मान लेना नहीं है अपितु शिक्षा हमें प्रबल बनाती है, उन ताक़तों के सामने खड़े होने के लिए जो अपने घमंड और नफ़रतों के मद में शिक्षा की प्रक्रिया, सामग्री एवं परिणामों को अपने नियंत्रण में करने का प्रयास करती हैं । शिक्षा हमें सक्षम बनाती है कि हम उन प्रत्येक प्रपंचों का सामना कर सकें, जो हमें हमारे अधिकारों से अलग करने और हमारे आगे बढ़ने की आधारशिलाओं को ही नष्ट करने के लिए रचे जाते हों । जिस समय हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि इतने विरोध प्रदर्शनों और सरकार के निशाने पर रहने के बाद भी JNU NAAC की A++ की श्रेणी पर क़ाबिज़ है तब ज़ी न्यूज़ जैसे कुछ चैनल JNU को अनपढ़ और बार-बार फ़ेल होने वाले विध्यार्थियों का गढ़ साबित करने पर तुले हुए हैं, जो कि दुःखद एवं हास्यास्पद है ।
हमें इस बात को समझना होगा कि राष्ट्र और सरकार में कई बुनियादी अंतर होते हैं । यह राष्ट्र स्वयं इसके लोगों से मिलकर बनता है जबकि सरकार इन्हीं लोगों के द्वारा अपने में से ही चुनी जाती है। हमें सरकार को ही राष्ट्र नहीं समझना चाहिए । सरकार की आलोचना को राष्ट्र की आलोचना नहीं समझना चाहिए । सरकार के ख़िलाफ़ विरोध को राष्ट्र के ख़िलाफ़ विरोध नहीं समझना चाहिए । JNU के ये शिक्षार्थी इसी देश के नागरिक हैं, जो न्याय के लिए और अधिकारों पर होने वाले आक्रमणों के ख़िलाफ़ खड़े होने का साहस करते हैं, जो कि इस देश का आम नागरिक सामान्य तौर पर नहीं कर पाता । आख़िर हम इस बात को लेकर इतने निश्चिंत कैसे हो सकते हैं कि सरकार जो कर रही है, केवल वही सही है । यदि आज हम अपने ही देश के लोगों के लिए खड़े नहीं हुए, उनकी आवाज़ के साथ आवाज़ मिलाकर गूँजे नहीं तो हमें इस बात को याद रखना होगा कि जब ताक़त के नशे में चूर घमण्डी सरकारें हमारे ऊपर आदेशों को थोपना शुरू करेंगी तब विद्रोह के मैदान में सिर्फ़ हम ही अकेले खड़े होंगे, कोई हमारा साथ देने नहीं आयेगा।
हमें अपनी ज़ुबानों को खोलना होगा । ये ड़र जो हमारे मन में बैठा दिया गया है कि सरकार के ख़िलाफ़ बोलने वाला राष्ट्रद्रोही होता है, हमें इस ड़र से बाहर निकलना होगा। हमें स्वयं से पूछना होगा कि क्या हम सिर्फ़ धर्म और सत्ता के चंगुल में उलझकर रह जाना चाहते हैं या हमारी बुनियादी ज़रूरतों पर होने वाले आक्रमणों के ख़िलाफ़ खड़े होकर अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए ज़ी-जान से लड़ना चाहते हैं । जब तक ये उत्साह और जोश हमारे पास नहीं होगा और जब तक इस ड़र को ख़त्म करने की ताक़त हमारे पास पैदा नहीं होगी, तब तक हम हमारे अधिकारों के लिए आवाज़ें बुलंद नहीं कर सकते । इसी ड़र की वजह से हम इस बात का निर्णय नहीं कर पाते कि कौन हमारे अधिकारों के लिए लड़ रहा है और कौन हमारे अधिकारों को छिनने की कोशिश कर रहा है । जब हमारे मन से सरकार और उसकी समर्थक भीड़ का ड़र ख़त्म हो जाएगा, तभी हम सीधे खड़े हो पायेंगे और फ़िर मैं आपसे पूछूँगा-
“बोल के लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़ुबाँ अब भी तेरी है।
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