हाल ही में सिनेमा में प्रस्तुत हुई ‘द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ मूवी जहाँ एक और राजनीतिक गलियारे में तहलके का कारण बनी वहीं दूसरी और सिनेमा पर एक ख़ास धुरी पर चलने वाली फ़िल्म के रूप में साबित होकर सूर्ख़ियों में आयी । वास्तव में इस मूवी के साथ वास्तविक मुद्दा इसमें प्रदर्शित सामग्री के विषय में तो रहा ही, इसके अतिरिक्त यह बात भी लगातार मनोरंजन के राजनीतिक बाज़ार में उछल-उछल कर सामने आती रही कि इस विषय-वस्तु का प्रयोग आख़िर किस भावना के साथ किया गया है । सबसे बड़ा प्रश्न जो राजनीतिक विश्लेषकों के सामने आया वह यही था की क्या यह मूवी सिर्फ़ दर्शकों के मनोरंजन मात्र के लिए बाज़ार में आयी या फिर इसको लाने के पीछे कई राजनीतिक हित छुपे हुए हैं । इस दावे को भी सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि जैसा की हमें पता है कि यह फ़िल्म श्री संजय बारु की किताब ‘द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ का चलचित्र रूपांतरण है, जो 2014 में ठीक चुनावों से पहले प्रकाशित हुई और फ़िर इसी तरह इस बार भी 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले इस मूवी का आना मात्र संयोग तो नहीं कहा जा सकता ।
इसी तरह इस मूवी को राजनीतिक हथियार कहने वालों के पास एक बात यह भी बताने को रही कि इस मूवी के पात्रों के सभी नाम वही रहने दिए गये, जो वास्तविक जीवन चरित्र में उपस्थित हैं या यूँ कहें कि उस किताब में जो दर्शाये गये। किन्तु, इसके साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि यह पहली बार नहीं है जब किसी बायोपिक मूवी में पात्रों के नाम वास्तविक व्यक्तित्वों के नाम ही रखे गए हों, ऐसा पहले भी कई बार होता रहा है इसलिए इस मुद्दे को आलोचना की कठोर कड़ी तो नहीं कहा जा सकता । जहाँ तक इस मूवी के प्लैट्फ़ॉर्म की बात है तो यह पूर्णतः तत्कालीन राजनीतिक क्रियाकलापों की पृष्ठभूमि पर खड़ी नज़र आती है और एक ख़ास राजनीतिक वर्ग या पार्टी में हो रहे उतार चढ़ावों को प्रदर्शित करती है । जिसे देखकर कोई भी यह आसानी से समझ सकता है कि क्यों आख़िर इसे इसी समय पर प्रस्तुत किया गया होगा इसीलिए इसे सिर्फ़ मनोरंजन की मूवी मानकर तो नहीं छोड़ा जा सकता और अंततः ये मुद्दे सामने आते ही हैं कि क्या सिनेमा को दर्शकों पर एक ख़ास प्रभाव डालने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया है ? अथवा दर्शकों के मनोरंजन के नाम पर फ़िल्म निर्माताओं ने अपने फ़ायदे के लिए ऐसे कोंट्रोवर्सियल समय पर इसे रिलीज़ किया है ? और, जैसा कि हम सभी समझते हैं कि एक मूवी समाज के बड़े तबके को प्रभावित करने की क्षमता रखती है तब ऐसे समय में क्या फ़िल्म निर्माताओं को यह नैतिक अहसास नहीं होना चाहिए कि चुनावों के पहले संवेदनशील समय में ऐसे संवेदनशील मुद्दे को समाज के सामने रखने से सामाजिक विचार किस दिशा की ओर रूख करेगा ?
ख़ैर, इस बात में तो कोई संदेह नहीं है कि यह मूवी दर्शकों का मनोरंजन करेगी किन्तु यह भी देखना लाज़िमी होगा कि यदि यह मूवी राजनीतिक हथियार के तौर पर सामने आयी है तो सिनेमा की सहायता से समाज के राजनीतिक रूख को पलटने के प्रयासों की यह प्रतिस्पर्धा आगे कहाँ तक जायेगी और हमारा समाज किस तरह इन सब चीज़ों के बीच रहकर भी सार्थक दृष्टिकोण को अपनाने में सफ़ल हो सकेगा।
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