नरेगा एक राष्ट्रीय स्तर की ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना है। इस योजना को ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005’ के माध्यम से जनता का क़ानूनी अधिकार बनाया गया है। इसके अनुसार भारत के ऐसे प्रत्येक ग्रामीण परिवार को एक वित्तीय वर्ष में कम से कम 100 दिन का रोज़गार प्राप्त करने का अधिकार है, जिसका कोई भी वयस्क सदस्य अकुशल शारीरिक कार्य (unskilled manual work) करने की इच्छा रखता है। (विशेष : अभी हाल ही में राजस्थान सरकार ने नरेगा में 100 दिन पूरे करने वाले मज़दूरों को 25 दिन अतिरिक्त काम देने का फ़ैसला किया है। इस तरह राजस्थान में नरेगा में 125 दिनों के रोज़गार की गारंटी सुनिश्चित की जाएगी।)
हालाँकि, यह एक बहस का विषय है कि नरेगा में दिया जाने वाला काम अकुशल कार्य होता है और उसमें काम करने वाले व्यक्ति अकुशल मज़दूर होते हैं। मेरा व्यक्तिगत मत है कि नरेगा में दिये जाने वाले काम और उसे करने वाले लोग अकुशल नहीं होते हैं। नरेगा में मुख्य तौर पर पेयजल, कृषि, स्वच्छता, सिंचाई, बाढ़ प्रबंधन, पशुधन और मछली पालन समेत आंगनबाड़ी केंद्रों का निर्माण जैसे कार्य दिये जाते हैं। इनमें से एक भी कार्य ऐसा नहीं है जिसमें कुशलता की आवश्यकता नहीं पड़ती हो। गड्ढा खोदने में एक-एक इंच का ध्यान रखा जाता है। कृषि, सिंचाई एवं बाढ़ प्रबंधन जैसी परियोजनाओं में स्थानीय ज़मीन, मौसम, और आकस्मिक घटनाओं के अनुमान का ज्ञान होना आवश्यक है। इन सबका ज्ञान जितनी बारीकी और गणितीय रूप से स्थानीय ग्रामीणों को होता है, उसका मुक़ाबला तथाकथित कुशल (skilled) लोग शायद ही कर पायें। इस लेख को छोटा रखने के लिए मैं यहाँ सिर्फ दो ही उदाहरण दे रहा हूँ और फिर भी यदि आप नहीं मानना चाहते हैं कि नरेगा में किए जाने वाले काम में कुशलता की आवश्यकता होती है तो मेरा व्यक्तिगत सुझाव है कि आपको कम से कम 1 दिन तो नरेगा में जाकर स्वयं कार्य करके देखना चाहिए। मुझे पूरा यक़ीन है कि इसके बाद नरेगा को देखने का आपका नज़रिया बदल जाएगा और आप मानने लगेंगे कि वास्तविकता में नरेगा स्थानीय कुशलता का बेजोड़ उदाहरण है।
ख़ैर, नरेगा एक ऐसी योजना है जिसने भारत के गाँवों में लोगों को 365 दिनों में से 100 दिनों का रोज़गार लेने का हक़ दिया। और, यह सिर्फ़ रोज़गार नहीं था बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक मज़बूत हिस्सा भी बना। एक स्थिर आय ने लोगों को अपने परिवार की ज़रूरतों को बेहतर तरीक़े से पूरी करने का मौक़ा दिया। नरेगा ने सिर्फ़ आर्थिक तौर पर ही लोगों को मज़बूत नहीं किया बल्कि ग्रामीण सामाजिक ताने-बाने में भी एक ज़बरदस्त बदलाव किया। नरेगा ने लोगों के सामने रोज़गार के विकल्प रखे। जिसने लाखों लोगों को बंधुआ मज़दूरी से आज़ाद करवाया। रोज़गार के अभाव में जहां गाँवों के साहूकार और पंच-पटेल मामूली पैसों के बदले लोगों को साल भर के लिये अनुबंध पर अपने पास रख लेते थे और उनसे घर के झाड़ू-पोछें करवाने से लेकर बाज़ार से अपने लिए समोसे-जलेबी मँगवाने का काम तक करवाते थे। यही नहीं, यदि जरा सी चूक हो जाती तो गाली-गलौच और मारपीट के साथ उसे याद दिलाया जाता था कि उसके घर की रोटी इन्हीं की वजह से पकती है। नरेगा ने लोगों को इस ज़िल्लत से भरी ज़िंदगी से बाहर निकलने का एक विकल्प दिया। और, इस विकल्प ने लोगों को अपनी अस्मिता के साथ जीने और पंच-पटेलों की ग़ुलामी को त्यागने के लायक़ बनाया।
भारत में नरेगा ग्रामीण अर्थव्यवस्था में ग़रीबों की लाइफ़लाइन बनकर उभरी। और, इसमें ध्यान देने की बात यह भी है कि इस योजना का फ़ायदा सिर्फ़ ग़रीबों को ही नहीं बल्कि मध्यम वर्ग को भी अच्छा-ख़ासा मिला। जिसने एक अतिरिक्त आय के रूप में ही सही लेकिन मध्यम वर्ग की ख़स्ता हालत को एक मज़बूत सहारा दिया। लेकिन, ग़रीबों के लिए यह योजना एक वरदान साबित हुई। जहां मध्यम वर्ग के लिए यह योजना एक अतिरिक्त आय का स्रोत थी वहीं ग़रीबों के लिए यह मुख्य आय का स्रोत बनी। जिसने बच्चों की शिक्षा से लेकर परिवार में पहनावे, ख़ान-पान और काम की आज़ादी को सुधारा।
इन सबके अलावा मैं नरेगा के तीन योगदान और गिनाना चाहता हूँ। इनमें से पहला है कि इसने समाज में रोज़गार को देखने का नज़रिया बदल दिया। भारतीय समाज में यह परंपरा रही है कि लोगों की अस्मिता को जाति और काम से जोड़कर देखा जाता था। जाति और काम के आधार पर यह तय किया जाता था कि किसके नाम के पीछे ‘जी’ लगाना है। नरेगा ने प्रत्येक जाति और धर्म के लोगों को अपनी परिधि में ले लिया। जिसने धीरे-धीरे लोगों की मानसिकता को बदलना शुरू किया और अब कम से कम किसी व्यक्ति को सिर्फ़ इसीलिए नीचा नहीं दिखाया जाता कि वह नरेगा के काम करता/करती है। नरेगा ने भारतीय ग्रामीण समाज में काफ़ी हद तक इस बीमारी को ख़त्म किया है और लोगों को सम्मानजनक रोज़गार देकर उन्हें दबी-कुचली अवस्था से उठाकर प्रतिष्ठा के साथ जीने का मौक़ा दिया। हालाँकि भारत में अभी भी जातिगत भेदभाव की एक दुर्भाग्यपूर्ण और गंभीर स्थिति विद्यमान है। लेकिन फिर भी इस बीमारी के इलाज में नरेगा के योगदान को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता।
दूसरा, नरेगा ने समाज में महिलाओं की भूमिका को दोयम दर्जे से निकालकर पारिवारिक अर्थव्यवस्था में एक सक्रिय योगदानकर्ता के रूप में स्थापित किया। भारत में महिलाओं द्वारा अपने घर में खाना बनाने, साफ़-सफ़ाई और खेती और बच्चों समेत परिवार को सँभालने के कार्यों को महत्व नहीं दिया जाता और इन कामों को आय में सक्रिय योगदान के रूप में नहीं देखा जाता, जो कि एक दक़ियानूसी सोच है। लेकिन, नरेगा ने इस गणित में बदलाव किया और महिलाओं को घर से बाहर निकलकर परिवार की आय में सक्रिय योगदान करने का मौक़ा दिया। इसने महिलाओं का आत्मविश्वास बढ़ाने के साथ ही महिला और पुरुष को काम के बदले मिलने वाले दाम में समानता लाकर भारत में एक नयी क्रांति को जन्म दिया (क्योंकि कृषि मज़दूरी में पुरुषों को ज़्यादा और महिलाओं को कम दाम दिया जाता था)। इसी का परिणाम है कि नरेगा में भाग लेने वाली महिलाओं का अनुपात वित्त वर्ष 2022-23 में दस सालों के सबसे ऊँचे स्तर पर पहुंच गया। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के पास उपलब्ध नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, इस वर्ष योजना का उपयोग करने वाले श्रमिकों में 57.8% महिलाएँ थीं, जो 2012-13 के बाद से उनकी भागीदारी का उच्चतम स्तर है।
तीसरा, नरेगा ने ग़रीबों को मज़दूरी का मोल-भाव तय करने की क्षमता दी। जहां पहले मज़दूरी मालिक के द्वारा तय की जाती थी वहीं नरेगा के आने के बाद मज़दूर अपनी मज़दूरी का मोल-भाव करने लगे। इसमें सबसे अच्छी बात यह हुई कि नरेगा में मिलने वाली मज़दूरी के आधार पर निजी मज़दूरी तय होने लगी और मज़दूरों को अपने काम के बदले अच्छे दाम मिलने लगे। हालाँकि, इसका मतलब यह नहीं है कि अभी मिलने वाली मज़दूरी उनके काम का सही दाम है। मेरा व्यक्तिगत मत है कि अभी भी मज़दूरों को उनके श्रम के बराबर दाम नहीं मिल रहा है। और, मुझे पूरा विश्वास है कि मेरा यह मत बेतुका नहीं है। विश्व बैंक के अनुसार, वर्ष 2020 में भारत में औसत ग्रामीण मज़दूरी लगभग ₹346 प्रति दिन थी, जो लगभग $4.69 USD (अमेरिकन डॉलर) के बराबर है। जबकि, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार, दुनिया में ग्रामीण मजदूरों की औसत दैनिक मज़दूरी लगभग $10.08 USD है। इसी तरह ILO के अनुसार ही विकासशील देशों में ग्रामीण मजदूरों की औसत दैनिक मज़दूरी लगभग $7.81 USD है। इन आँकड़ों से यह बिलकुल स्पष्ट है कि भारत में ग्रामीण मज़दूरों को मिलने वाली दैनिक मज़दूरी सिर्फ़ दुनिया से ही नहीं बल्कि भारत जैसे अन्य विकासशील देशों से भी कम है। ऐसी स्थिति में नरेगा ने ग़रीबों के घर में स्थिर आय की गारंटी देकर उन्हें ग़रीबी के चक्रव्यूह में साँस लेने की क्षमता प्रदान की है।
नरेगा के साथ हमेशा गारंटी शब्द का प्रयोग होता है। इससे यह बिलकुल स्पष्ट है कि यह राज्य के द्वारा उसके ग्रामीण नागरिकों को रोज़गार की गारंटी प्रदान करती है। अतः यदि राज्य नरेगा के अंतर्गत काम के इच्छुक लोगों को रोज़गार नहीं दे सकता है तो उसे लोगों को बेरोज़गारी भत्ता देकर इसकी भरपाई करनी होगी। जो अपने-आप में सरकार की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही तय करने की एक मिसाल है। इस प्रकार भारत में चल रही नरेगा योजना ने पूरे विश्व के सामने आर्थिक और सामाजिक बदलाव लाने का एक अद्वितीय उदाहरण पेश किया हैं।
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