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Thursday, September 23, 2021

“सोच” की अतिरिक्तता तथा सामान्यता - एक विचार


 


ज़िंदगी के कई दिन और कई राते यूँ हीं गुज़र जाते हैं । यही सोचते-सोचते कि आख़िर क्या हम वही सोच रहे हैं, जो हमें सोचना चाहिए था या हमारी सोच कुछ धुँधली तस्वीरों में अटकी हुई है, जिनका पर्दे पर तो कोई नामो-निशान नहीं है लेकिन उनके अस्तित्व की अदृश्य परछाइयाँ मानस पटल के किसी कोने में अविच्छिन्न डेरा जमाए हुए हैं । आख़िर हमारे सोचने का परिणाम क्या होगा ? इसका उत्तर जानने से पहले हमें इस बात का ज्ञान करना चाहिए कि जो हम सोच रहे हैं , आख़िर उसका कारण क्या है ? क्या इन कारणों की पृष्ठभूमि किन्हीं पूर्व परिणामों की उपज हैं अथवा ये कारण किन्हीं ख़ास परिणामों की ओर इंगित होते हैं ? मानस पटल पर उभरी कई तस्वीरें रंगीन चलचित्रों में अपनी छाप को समाविष्ट करती हुई लीन हो जाती हैं । क्या हमने सोचा कि इनकी लीनता के पश्चात् इनके वास्तविक पृष्ठ पर कुछ शेष बचा होगा ? क्या हमने सोचा कि हमारी सोच, जो लगातार एक ख़ास दिशा में निश्चित आयामों के साथ अग्रशील है, उसका इस ‘शेष’ के साथ कोई ख़ास सम्बंध है?

जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, अनुभव बढ़ते हैं, कई क्षेत्रों में ‘सोच’ प्रगतिशील हो जाती है तो कई क्षेत्रों में घटनाओं के मकड़ जाल में उलझकर ‘सोच’ रूढ़  हो जाती है । ख़ासकर यह देखा गया कि जो घटनाएँ एक बार घटकर अब मृतप्रायः हो चुकी है किन्तु उनका तात्कालिक प्रभाव अतिव्यापी रहा है, उनसे सम्बंधित सोच काल में उलझकर स्थिर हो गई और जिन घटनाओं ने स्वयं का अनुघटन लगातार पुनरावर्तित करते हुए प्रगतिशील बनाए रखा, उनसे सम्बंधित सोच स्वतः स्फूर्त होकर बहुआयामी हो जाती है ।

सुख-दुःख, शंका-विश्वास जैसे शब्दों का पृथक अस्तित्व अनंत हैं किन्तु मानसिक तनुता से इनका सम्बंध गहरा परिलक्षित होता है। क्या हमने सोचा कि इन शब्दों की उत्पत्ति का कारण ‘सोच’ है या इन शब्दों का प्रभाव ही ‘सोच’ की उत्पत्ति है ? हमें लगता है जीवन के किसी ख़ास पल में उपजी बात इन्हीं शब्दों से व्याख्यायित की जा सकती है किन्तु क्या वास्तव में ऐसा है ? मेरा मत है - नहीं! क्योंकि जब हम किसी ‘सोच’ को शंका-विश्वास, सुख-दुःख से इंगित कर देते हैं तब समस्या यह उत्पन्न होती है कि हमने उस ‘सोच’ को कारण माना अथवा प्रभाव ? ‘शंका’ के कारण ‘सोच’ उत्पन्न हुई या ‘सोच’ के कारण ‘शंका’ ? क्या हमने सोचा कि किसी ख़ास समय में कही गई बात ‘शंका’ से उपजी ‘सोच’ है या किसी विशिष्ठ ‘सोच’ से उपजी ‘शंका’ ?

इस प्रश्न के गर्भ में चिंतन की एक लम्बी यात्रा है। जीवन के दैनिक क्रियाकलापों में हम दिन-भर में कितनी बार ‘सामान्य’ से ‘अतिरिक्त’ विचार को किसी वक्तव्य या चर्चा के रूप में फलीभूत करते हैं ? मेरे ख़्याल से मात्र कुछ ही बार - अन्यथा जीवन का प्रत्येक दिन सामान्य क्रियाकलापों और ‘सामान्य सोच’ के साथ अस्त हो जाता है।

क्या हमने सोचा कि इस ‘सामान्य से अतिरिक्त’ विचार या सोच का आगमन उसी विशेष दिन क्यों हुआ ? क्या उस दिन कुछ ख़ास घटनाएँ घटित हुई अथवा पूर्वकालिक घटनाओं का कोई ख़ास प्रभाव उस विशेष दिन परिलक्षित हुआ ? अथवा , इस वर्तमान विचार की कोई भूत पृष्ठभूमि न होकर क्या इसका कोई अग्रिम संकेत संकल्पित है ? तब क्या इन सब प्रश्नों के जवाब ‘सोच’ के कारण तथा प्रभाव की ओर हमें गतिशील कर सकते हैं ?

सामान्य व्यक्ति ‘सोच’ को किस रूप में परिलक्षित करते हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि कहे गए वक्तव्य अथवा चर्चा का उन पर कितना प्रभाव अपेक्षित है और वे इस पर किस प्रकार की प्रतिक्रिया प्रस्तुत करते हैं ? यह स्थिति अधिक समन्वयकारी होती है यदि ‘सामान्य सोच’ का ‘सामान्य सोच’ से विचारण होता है किन्तु यदि एक ‘अतिरिक्त सोच’ का किसी ‘सोच’ के कारण और प्रभाव की समष्टि के प्रति लगाव हो तथा इसके साथ विचारण की स्थिति में इसके सम्मुख ‘सामान्य सोच’ हो, जो तात्कालिक प्रभाव पर तात्कालिक प्रतिक्रियाशील हो, तब उत्पन्न प्रभाव को सुख-दुःख, शंका-विश्वास जैसे शब्दों के द्वारा व्याख्यायित किया जाने लगता है और यह व्याख्या मर्म की गहराई को ख़त्म कर दोनों ‘सोच’ के बीच नए अंतर्द्वंद्व का विरचन करती है । तब स्वाभाविक रूप से इस अंतर्द्वंद्व का परिणाम ‘सामान्य सोच’ के अनुसार अनुसरित होने लगता है और इसका सार विचारण  के द्वंद्व युक्त पतनशील होने के रूप में सामने आता है ।

मैं यहाँ ‘अतिरिक्त सोच’ और ‘सामान्य सोच’ के मध्य सही और ग़लत का निर्धारण नहीं कर सकता क्योंकि ‘सही’ और ‘ग़लत’ दोनों व्याख्याएँ भी अपने-आप में निरपेक्ष नहीं है अतः इनकी सापेक्षता की बहस में गिरने के प्रति मैं अपनी अक्षमता महसूस करता हुँ। जहाँ तक ‘सोच’ के कारण और प्रभाव का प्रश्न है, तो यह भी निरपेक्ष नहीं है और सम्भवत: इसकी सापेक्षता ही ‘अतिरिक्त सोच’ के अधिक प्रभावी होने पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है अन्यथा ‘अतिरिक्त सोच’ स्वयं की प्रगतिशीलता को आधार बनाकर ‘सामान्य सोच’ को प्रभाव शून्य कर सकती थी । यह सापेक्षता ही ‘सामान्य सोच’ को ‘सही’  की आकांक्षा में अस्तित्ववान बनाए रखती है और शायद इसी का परिणाम है कि समाज और व्यक्ति की ‘प्रगतिशीलता’ में लगातार वृद्धि के पश्चात भी ‘सामान्यता’ कभी-भी प्रभाव शून्य नहीं हो सकी ।

इस सारी बहस में यही प्रश्न महत्वपूर्ण बच जाते हैं कि दैनिक क्रियाकलापों में सामान्य से हटकर, जो कुछ अतिरिक्त विचार उपजते हैं , उनके कारण और प्रभाव का ज्ञान कौन करे ? वह ‘सोच’ जो उस विचार को अभिव्यक्त कर रही है ? अथवा वह ‘सोच’ जिसके सम्मुख उस विचार या चर्चा को अभिव्यक्त किया जा रहा है ? क्या किसी एक ‘सोच’ द्वारा इसके अभिनिर्धारण से विचारण का सकारात्मक परिणाम प्राप्त हो सकता है अथवा दोनों प्रकार की ‘सोच’ के लिए इसके अभिनिर्धारण हेतु प्रयासरत होना वांछित होगा ? लेकिन क्या इस प्रकार अभिनिर्धारण के आयामों को लेकर फिर से ‘अतिरिक्त सोच’ और ‘सामान्य सोच’ की बहस खड़ी नहीं हो जाएगी ?

यह बहस अनंत हो सकती है किन्तु मेरे मन में अंतर्द्वंद्व मात्र इस बात का है कि ‘अतिरिक्त सोच’ और ‘सामान्य सोच’ के मध्य विचारण या चर्चा की स्थिति में सकारात्मक निष्कर्षों की अपेक्षा किस ‘सोच’ से की जा सकती है क्योंकि ‘सामान्यता’ अतिरिक्तता को सामान्यतः स्वीकार नहीं कर पाती और ‘अतिरिक्तता’ सदैव ‘सामान्यता’ को अवशोषित कर प्रगतिशील बनना चाहती है। इस अंतर्द्वंद्व की समाप्ति एक स्वस्थ वैचारिक चर्चा के बाद ही सम्भव हो सकती है ।


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